नई सरकार क्या नई छवि गढ़ पाएगी?

नई सरकार का गठन हो गया है। बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए ने दूसरी बार देश की बागडोर सँभाल ली है दूसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के नवनिर्वाचित सांसदों को संबोधन में जो कुछ कहा, उसमें कुछ विशेष नया नहीं है। अलबत्ता ये ज़रूर लगता है कि वे पिछली गलतियों को दोहराने से बचना चाहते हैं। खास तौर पर सामाजिक सद्भाव एवं सांप्रदायिक सौहाद्र्र को कायम रखने के प्रति ज़्यादा कोशिश करना चाहते हैं। अल्पसंख्यक समुदायों को उन्होंने अपनी तईं आश्वस्त करने की भी कोशिश की है और दलित एवं पिछड़ी जातियों को भी भरोसा दिया है कि उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
नई सरकार क्या नई छवि गढ़ पाएगी?

उम्मीद करना चाहिए कि वे दिल से ऐसा कह रहे हैं और इसके लिए ईमानदार प्रयास करेंगे। उनका पिछला कार्यकाल इस मामले में बेहद दाग़दार रहा है। गौ रक्षा, लव जिहाद और इसी तरह के सांप्रदायिक मुद्दों को आधार बनाकर की गई हिंसा ने उनकी एवं उनकी सरकार की छवि को राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मलिन किया था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बहुत सारी नकारात्मक बातें लिखी गईं और उन्हें विभाजनकारी के रूप में चित्रित भी किया गया। बीजेपी और मोदी दोनों के लिए अच्छी बात ये है कि उन्हें एक और मौक़ा मिला है जब वे अपनी भूलों को सुधारकर एक नई छवि गढऩे का प्रयास कर सकते हैं।

इसके लिए उन्हें उन तत्वों के ख़िलाफ़ सख़्ती दिखानी होगी जो अतिवादी हिंदुत्व की मानसिकता से ग्रस्त हैं और अन्य धर्मों के प्रति नफऱत तथा हिंसा फैलाने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं। किसी भी देश की कानून-व्वस्था की स्थिति को इससे भी मापा जाता है कि वहाँ धार्मिक ही नहीं हर तरह के अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति है। वे खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं  या नहीं, उनके साथ किसी तरह का भी भेदभाव बरता जा रहा है या नहीं और उन्हें आगे बढऩे के लिए समान अवसर दिए जा रहे हैं या नहीं।

इन तीनों मानदंडों पर खरा उतरकर ही मोदी सरकार अल्पसंख्यकों का विश्वास अर्जित कर सकती है। लेकिन ये बेहद चुनौतीपूर्ण काम भी है। चुनौतीपूर्ण इसलिए कि समस्या खुद उनके अपनी पार्टी और विचारधारा को मानने वाले लोग ही खड़ी कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में बड़ी विजय ने उनके हौसले और भी बढ़ा दिए होंगे और वे अब बेलगाम हो सकते हैं। उन्हें लगने लगा होगा कि अब तो उन्हें लायसेंस मिल गया है और अपनी सरकार की सरपरस्ती में वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। अगर मोदी सरकार उनको अनुशासित एवं नियंत्रित करने की कोशिश करेगी तो वे उग्र होकर उसके ख़िलाफ़ भी जा सकते हैं। इसका सीधा असर विधानसभा एवं लोकसभा के भावी चुनावों में बीजेपी की संभावनाओं पर भी पड़ सकता है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या मोदी ये जोखिम उठा सकते हैं या उठाने की हिम्मत दिखाएंगे?

अल्पसंख्यक समुदायों ही नहीं, अपने विरोधियों और आलोचकों के प्रति सहिष्णुता दिखाना भी मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में होना चाहिए। चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि इस बार भी विपक्ष कमज़ोर है और वह वैसी भूमिका निभाने में असमर्थ होगा जैसी कि एक स्वस्थ लोकतंत्र में निभाई जानी चाहिए। ऐसे में सत्ताधारी गठबंधन की ये अतिरिक्त जि़म्मेदारी हो जाती है कि वह उसे दबाने या ख़्तम करने की कशिश न करे, बल्कि उसे अपनी बात रखने का पर्याप्त मौका दे। पिछले पाँच सालों में ऐसा कम ही देखने को मिला था। सरकार ने विरोधियों के ख़िलाफ़ सीबीआई, इनकम टैक्स एवं दूसरी एजंसियों का जमकर इस्तेमाल किया था। इससे एक आतंक का माहौल बना और ये साफ़ दिखा कि वह पक्षपातपूर्ण ढंग से काम कर रही है और विपक्ष को कुचलने के अनैतिक हथियार आज़मा रही है।

अगर सरकार को अपनी छवि बदलनी है तो उसे अपना नज़रिया बदलना होगा और बात-बात पर विपक्षियों को पाकिस्तानी, देशद्रोही तथा अर्बन नक्सलाइट, टुकड़े-टुकड़े गैंग कहकर बदनाम करने वालों पर अंकुश लगाना होगा। दरअसल, मोदी-2 के व्यवहार की असली कसौटी सहिष्णुता के मामले में उसका रुख ही होगी और इसके लिए ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। आने वाले चंद महीनों में ही तय हो  जाएगा कि प्रधानमंत्री मोदी की कथनी और करनी में कोई फर्क है या नहीं।
-मुकेश कुमार
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